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अभय-रत्नसार ।
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कमसे कम पाँच पर्वी तिथियोंमें- जैसे शुक्ल पंचमी, दोनों अष्टमी, दोनों चतुर्दशी और अन्य उत्तम पर्वोकी तिथियोंमें तथा दोनों दूज, दोनों अष्टमी, दोनों चतुर्दशी, अमावास्या और पूर्णिमा तथा मध्यम रुपसे आठ या दश पर्वतिथियोंमें अवश्य ही हरियाली यानी साग-सब्जीका त्याग करना चाहिये। कितने ही लोगों इन तिथियों में पके केलों का उपयोग करते हैं, वह अचित्त है । उसके सिवा और कोई वनस्पति इन दिनोंमें काममें नहीं लानी चाहिये ।
सामान्य रीति से कहा गया है, कि अनजाने फल, बिना भलीभाँति देखे-भाले हुए साग या पत्ते, सुपारी आदि सम्पूर्ण फल बाजा, रके चूरन, चटनी, मलिन घी और बिना परीक्षा किये हुए अन्य पदार्थोंके खानेसे मांस भक्षणका दोष लगता है। चौमासेमें तो जिस दिनकी तोड़ी हुई हो, उसी दिन सुपारी खाये फिर नहीं इसी तरह इलायची भो देखकर ही खानी चाहिये। चौमासेमें पीपरामूल, सोंठ आदि भी नहीं खाना चाहिये । दवाके लिये व्यव हार करना हो तो भली भाँति देख लेना चाहिये ।
तथा आसोज सुदी ७ से १५ तक, होती है। तीन चौमासेकी तीन अहाईपहली कार्तिक सुदी ७ से १५ तक दूसरी फाल्गुन सुदी ७ से १५ तक और तीसरी असाढ़ दी ७ से १५ तक जाननी चाहिये । पर्युपया पर्वकी अठ्ठाई श्रावण बदी १२ से भादों सुदी ४ तक होती है। इस प्रकार छः अट्ठाईयाँ बतयी गयी हैं। इन दिनोंमें सचित्त पदार्थों एवं वनस्पतियोंका त्याग, ब्रह्मचय मारी, तप, जिनपूजा, गुरुवन्दन, व्याख्यान - श्रवण, समायिक, पौषध, अति-संविभाग आदि नियमों का अवश्य ही पालन करना चाहिये ।
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