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अभय रत्नसार।
२७६ ॥ चौरासी आशातनाओंका स्तवन ॥ ॥ ढाल ॥ विलसै ऋद्धि समृद्धि मिलि ॥ देशी ॥
जय जय जिण पास जगत्र धणी, सोभा ताहरी संसार सुणी ॥आयो हुँ पिण धर आस घणी, करवा सेवा तुम चरण तणी ॥१॥ धन धन जे न पडे जंजाल, उपयोगसं वैसे जिन आले ॥ आशातना चउरासी टाले, साश्वता सुख तेहिज संभालै ॥ २ ॥ जे नाखै श्लेषम जिनहरमें, कलह करै गाली जूये रमै ॥ धनुषादि कला सीखण ढूकै, कुरलो तंबोल भखे थूकै ॥३॥ सुरेवाय वडी लघुनीत तणी, संज्ञा कंगुलिया दोष सुणी ॥ नख केस समारण रुधिर क्रिया, चांदीनी नाखै चांमडियां ॥ ४ ॥ दातण ने वमन पिये कावो, खावे धांणी फूली खावो॥ सूवे वेसामण विसरावै, अज गज पशु ने दामण दावै ॥ ५॥ सिर नासा कान दशन आखै, नख गाल वपुषना मल नखै॥ मिलणो लेखो करे मंत्रणो, विह चन अपणो कर
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