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अभय रत्नसार ।
३०१
॥ १५ ॥ नरकथकी वे बहुं दंडकै, निरयंचके नर थाय || ते पिरण गरभज ने परयापता ॥ संख्याती जसु श्राय ॥ न० ॥ १६ ॥ नारकियां ने नरकथी नीसरा, जे फल प्रापति होय ॥ उत्कृष्टे भांगे करते कहू, पण निश्चै नहीं कोय ॥ न० ॥ १७ ॥ प्रथम नरकथी चवि चक्रवर्त्ति हुवै, बीजो हरि बलदेव || तीजी लग तीर्थंकर पद लहै || चोथी केवल एव ॥ न० ॥ १८ ॥ पंचम नरकन सरबविरति लहै, छठी देसविरत्त ॥ सा तमो नरकनो समकितहीज लहै, न हुवै अधिक निमत्त ॥ न० ॥ १६ ॥
|| दाल || ३ || करमपरीक्षा करण कुमर चल्यो रे ॥ ए देशी ॥ मानव गति विन मुगति हुवै नही रे, एहनो 'इम अधिकार ॥ आउ संख्याते नर सहु दंडके रे, आवी लहै अवतार ॥ मा० ॥ २० ॥ तेउ वाऊ दंडक बे तजी रे, बीजा जे बावीस ॥ तिहांथी आया थायै मानवी रे, सुख, दुख कम सरीस ॥
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