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अभय रत्नसार।
२६४ जी ॥ पू० ॥ २॥ तू ज्ञानी तो पिण तुझ आगे, वीतक किहिये वात जी ॥ चोवोसे दंडक हूँ भमियो । वरणं तेह विख्यात जी ॥ पू० ॥३॥ साते नरक तणो इक दंडक, असुरादिक दस जाण जी ॥ पांच थावरने तीन विकलेन्द्री॥ उगणीस गिणती आंण जी॥ पू०॥ ४॥ पंचेंद्री तिर्यश्चने मानव, एह थया इकवीस जी॥ व्यंतर ज्योतषी ने वैमाणिक, इम दंडक चोवीस जी ॥ पू० ॥ ५॥ पंचेंद्री तिथंच अने नर, पर्याप्ता जे होय जी, ए चोविह देवामें ऊपजै, इम देवां गति दोय जी॥ पू० ॥ ६ ॥ असंख्यात आऊखै नर तिरि, निहचै देवज थाय जी॥ निज आंऊबै सम के ओछै, पिण अधिक नवि जाय जी॥पू० ॥७॥ भवनपतीके व्यंतर तांई, समूच्छिम तियंच जी ॥ सगर आठमां तांइ पोहचै, गरभज सुकृत संच जी ॥ पू० ॥८॥ आउ संख्यातै जे गरभज, नर तिरजंच विवेक जी ॥ बादर पृथको
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