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अभय रत्नसार ।
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गज लांछन प्रभुजीने जांण, अमृत सम जसु मीठी वाण ॥६॥ अनुक्रम प्रभुजी शिखरसमेत, गिरवर पर आव्या निज हेत । सहस मुनिवरने परिवार, मासखमण अणस कर सार ॥ १० ॥ चैत्री सुदि पूनमने दिने, मुक्ति गये प्रभु तीरथ इणे इो । भूचर खेचर किन्नर सुरी, इन्द्रादिक सहु उच्छव करी ॥ ११ ॥ थाप्यो तीरथ मोटोमही, अठाइ महोच्छव कियो सही । ए तोरथनी जात्रा करे, ते भवियण अक्षयसुख वरे ॥ १२ ॥
दूहा || श्रीसंभव जिनराज जी, गए इहां निर्वाण | शिखरसमेत सुहामणो, प्रगट्यो तीरथ जां ॥ १ ॥
दूसरी ढाल - सुगण सनेही साजन श्रीसीमंधर स्वाम-ए देशी । सावत्थीनगरी भरी धन संपद बहु थोक, जैतारि नृप राज करै सुखिया सब लोक । सेनाराणी मीठी वाणी गुणनी खाण, जेहने श्री संभव जनम्या सकल सुजाण ॥ १ ॥ कंचनवरण
सुत
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