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अभय रत्नसार।
२४३ शतु नतेषु संपदं ॥३॥ श्रीमद्वीर चरम तीर्थाधिप मुख कमलाधि वासिनी । पार्वण चंद्र विशद वद नोजवल राज मराल गामिनी ॥ प्रदिशतु सकल देव-देवी-गण परिकलिता सतामियं बिच कलधवल कुवलयकल मूर्तिः श्रुतदेवी श्रुतोच्ययं ॥४॥
॥बीजकी स्तुति॥ मनसुध वंदो भावभवियण श्रोसीमंधर रायाजी । पांचसे धनुष प्रमाण विराजित कंचनवरणी कायाजी॥ श्रेयांस नरपति सत्यकी नंदन वृषभ लंछन सुखदायाजी। विजय भली पुखलाइव विचरे सेवे सुरनर पायाजी॥ १॥ काल अतित जे जिनवर हवा होस्ये जेह अनंता जी। संप्रतिकाले पंचविदेहे वरतेवीस विख्याताजी॥ अतिशयवंत अनंत गुणाकर जग बंधब जगत्राता जी। ध्यायक ध्येय स्वरूप जे ध्यावे पावे शिव सुख सताजी ॥२॥ अरथे श्रीअरिहंत प्रकाशी सूत्रे गणधर आणीजी । मोहमिथ्यात्व तिमिर
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