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अभय रत्नसार ।
३०३
कहावे, तिहांथी आउ संख्याता नर तिरयंचमें आवे || विकल चवील है सरबविरति पिण मुगति न पावैं, उ वाउथी आयो तेहने समकित नावै ॥ २७ ॥ नारक वरजीनें सगला ही जीव संसार, पृथवी आउ वनस्पतीमांहि लहै अवतार ॥ ए ती नें इहांथी चवि वे दसे ठाने, थावर विकल तिरी नरमांहै उतपत पामै ॥ २८ ॥ पृथवींकाय आद देई दस दंडके एह, तेउ वाऊ मांहे आवी ऊपजै तेह || मनुष्य विना नव मांहे तेउ वाउ बे जावे, विकलेन्द्र ते दसमांहि जावै पृठाही आवे ॥ २६ ॥ एम अनादितणो मिथ्यात्वी जीव एकंत, वनस्पती माहे तिहा रहियो काल अनंत ॥ पुढवी पाणी अनि अनैं चोथो वलि वाय, का, लचक्र असंख्याता तांइ जीव रहाय ॥ ३० ॥ बेइन्द्री इन्द्री ने चोरिंद्री मझारै, संख्याता वर सां लगे भमियो करम प्रकारे ॥ सात आठ भव लगि ताँ नर तिरयंचमें रहियो, हिव मांनवभव
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