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अभय रत्नसार।
पक-पाइक-पुन्न, सयल पुहवि-रज छड्डिाणसज । तणमिव पडिलग्गं जे जिणा मुत्तिमग्गं, चरणमणुपवन्ना हुतु ते मे पसन्ना ॥१३॥ छण-ससि-वयणाहिं फुल्ल-नित्तुप्पलाहि, थण-भरनमिरीहिं मुट्ठि-गिज्झोदरीहिं । ललिअ-भुअलयाहिं पीण-सोणि-स्थणाहिं, सम-सुर-रमणीहिं दिया जेसि पाया ॥ १४ ॥ अरिसकिडिभकुटु-गंठि-कासाइसारा, खय-जर-वण-लूआसास-सोसोदराणि । नह-मुह-दसणच्छी-कुच्छिकन्नाइ-रोगे, मह-जिण-जुअ-पाया सुप्पसाया हरंतु ॥ १५॥ इअ गुरु-दुह-तासे पक्खिए चाउमासे, जिणवर-दुग-थुत्त वच्छरे वा पवित्तं । पढह सुणह सिज्झाएह भाएह चित्ते, कुणह मुणह विघ जेण घाएह सिग्घ॥ १६ ॥ इय विजयाऽजिअसत्तु पुत्त ! सिरि-अजिअ-जिणेसर!, तह अइरा-विस-सेण-तणय ! पंचमचक्कोसर ! । तित्थंकर ! सोलसम! संति !
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