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अभय रत्नसार ।
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विधि ज्ञानाचार विषइओ जिको अतिचार पक्षदिवसमांहे सूक्ष्म बादर, जाणतां अजाणतां, हुवो होय, ते सहु मन, वचन, कायाई करी मि• ॥ दर्शनाचारना आठ अतिचार, – निस्संकिय निक्कंखित्र, निव्वितिमिच्छा अमूढ-दिट्ठी अ । उव-बूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभाव ॥१॥ देव-गुरु-धर्म-तणे विषे निःशंकपणो न कोधो, तथा एकांत निश्चय धरयो नहीं । 'सघलाइ मत भला छे' एहवी श्रद्धा कीधी । धर्मसंबंधिया फलतणे विषे निःसन्देह बुद्धि धरी नही । चारित्रिया साधु-साधवी तणां मल-मलिन गात्र देखो दुगंछा उपजावी । मिथ्यात्वीतणी पूजाप्रभावना देखी मूढदृष्टिपणो कीधो । संघमांहे गुणवंततणो अनुपवहणा, अस्थिरीकरण, अवात्सल्य, प्रीति अभक्ति चिंतवी, संघ मांहे थिरिकरण वात्सल्य, शक्ति छते प्रभावना न कीधी । देवद्रव्य विनासिउं, विणसंतु उवेखिउं,
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