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अभय रत्नसार। अति सबल मुझ हिये, मोह माया. घणी, एक मन भगति किम करू त्रिभुवन धणी ॥ २ ॥ जीव आरति करे नव नवी परिगडे, रीश चटको चढ़ लोभ वयरी नडे॥ नयण रस वयण रस काम रस रसीयो, तेम अरिहंत तूं हीयडे नवि वसीयो॥३॥ दिवसने राति हियड़े अनेरो धरू, मूढ मन रीझवा वलिय माया करू॥ तूंहि अरिहंत जाणे जिस्यो आचरू, तेम कर जेम संसार सागर तरू॥ ४॥ कम्मवसि सुख ने दुःख जे हुं सहुं, मन तणी वात अरिहंत कि णने कहूं ॥ करि दया करि मया देव करुणा परा, दुःख हरि सुक्ख करि सामि सीमंधरा ॥५॥ जाण संयोग आगम वयण पण सुणु, धर्म न कराय प्रभु पाप पोतें घणु ॥ एक अरिहंत तूं देव बीजो नहि, एह आधार जग जाणजो अह्म सही ॥६॥ धरण करणय माय पिय पुत्त परियण सहू, हस्यो बोल्यो रम्यो रंग रातो बहू ॥ जयो
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