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स्तवन-संग्रह। जयो जगगुरु जीव जीवन धरा, तुह्म समोवड नहिं अवर वाल्हेसरा ॥७॥ अमिय सम वाणि जाण सदा सांभलु, बारवर परषदामांहि आवी मिलु॥ चित्त जाणु सदा सामि पाय उलगु, किम करु ठाम पुंडरगिरि वेगलु॥८॥ भोलिड़ा भगति तूचित्त हारे किस्ये, पुण्य संयोग प्रभु दृष्टिगोचर हुस्ये ॥ जेहने नामे मन वयण तन उल्लसे, दूरथी दूकडा जेम हियड़े वसे ॥ ६ ॥ भल भलो एणि संसार सहू ए अछे, सामि सीमंधरा ते सहू तुम पछे ॥ ध्यान करतां सुपनमांहि आवो मिले, देखिये नयण तो चित्त आरति टले ॥१०॥ साम- सोहामणा नाम मन गहगहे तेहशु नेह जे वात तुह्म जी कहे ॥ तुह्म पद भेटवा अति छणो टलवल, पंख जो होय तो सहिय आवी मिलं ॥११॥ मेरुगिरि लेखणी आभ कागल करूं, क्षीरसागर तणां दूध खड़िया भरु ॥ तुम मिलवा तणां सामि संदेशड़ा, इन्द्र
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