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अभय रत्नसार। सक्काइणो सुरा जे, जिण-वेयावच्च-कारिणो संति । अवह-रिय-विग्घ-संघा, हवन्तु ते संघसन्तिकरा ॥३॥ सिरि-थंभण य-ट्टिय-पाससामि-पय-पउम-पणय-पाणीण। निदलिय-दु. रिय-विंदो, धरणिदो हरउ दुरियाई ॥४॥ गोमुह-पमुक्ख जक्खा, पडिहय-पडिवक्ख-पक्खलक्खा ते। कय-सगुण-संघरक्खा, हवन्तु संपत्त-सिव-सुक्खा ॥ ५ ॥ अप्पडिचक्का-पमुहा, जिण-सासण-देवया वि जिण पणया। सिद्धा. इया-समेया, हवन्तु संघस्स विग्घहरा ॥ ६ ॥ सकाएसा सच्चउर-पुरट्रिओ वद्धमाण-जिणभत्तो। सिरि-बम्भ-सन्ति-जवखो, रक्खर संघ पयत्तेण ॥७॥ खित्त-गिह-गुत्त-सन्ताण-देस-देवाहिदेवया ताओ । निव्वुइ-पुर-पहिआणं, भव्वाण कुणंतु सुक्खाणि ॥ ८॥ चक्क सरि-चक्कधरा, विहिपहरिउच्छिण्ण-कन्धरा धणियं । लिव-सरणलग्ग-संघस्स, सम्यहा हरउ विग्घाणि ॥८॥
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