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अभय-रत्नसार । ५६१ भक्ति जल सींचता ॥ मेरु सिहरोवरे सर्व आव्या वही । शक उच्छङ्ग जिन देखि मन गहगही ॥ ___गाथा ॥ हंहो देवा अण्णाइ कालो । अदिट्टपुव्वो तिलोय तारण। तिलोय बन्धु मिच्छत मोह विद्धंसणो। प्राणाइतिहाविणासणो। देवाहिदेवो दिव्यो हियकामेहिं ॥ ___ ढाल ॥ एम पभणंत वण भुवन जोईसरा । देव वेमाणिया भत्ति धम्मायरा ॥ केवि कप्पटिया केवि मित्ताणगा। केवि वर रमण वयणेण अइ उच्छगा॥ वस्तु॥ तत्थ अच्युय तत्थ अच्युय इन्द्र आदेश। कर जोड़ी सब देवगण लेइ कलश आदेश पामिय । अद्भुत रूप सरूप जुय कवण एह पुच्छंत सामिय । इंद्र कहे जग तारणो पारग अम्ह परमेस । दायक नायक धर्मनिधि करिये तसु भिषेक॥ (इस समय जलकी थोडीसी धारा देना) तीर्थ कमलवर उदक भरीने पुष्कर सागर आवै-ए देशी ।। ढाल ॥ पूर्ण कुलश शुचि उदकनी धारा,
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