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अभय-रत्नसार ।
ढंढण ऋषीकी सज्झाय ।
|| ढंढर ऋषिजीने वन्दना हूं वारी, उत्कृष्टो अणगार, रेहूवारी लाल, अभिग्रह लीधो एहवो, हुं• ॥ लेस्युं शुद्ध आहाररे ॥ हुं० ॥ १ ॥ ढं० ॥ नितप्रति ऊठे गोचरी हुं० ॥ न मिले शुद्ध आहाररे || हुंवा ० मूल न लै अणसूझतो हुं० ॥ पञ्जर कीधो गातरे हुं० ॥ २ ॥ ढं० ॥ हरि पर्छ श्रीनेमने हैं०, मुनिवर सहस अढार रे ॥ हुंवा० ॥ उत्कृष्टो कुण एहमें हुं० ॥ मुझनें कहो विचार रे || हुंवा० ॥ ३ ॥ ढं० || ढंढा अधिको दाखियो हुं० ॥ श्रीमुख नेमजिणंढ रे हुंवा० ॥ कृष्ण ऊमाह्या वांदावा हुं० ॥ धन जादव कुलचन्द्र रे हूंवा० ॥ ४ ॥ ढं० ॥ गलियारे मुनिवर मिल्या हुं०, वांद्या कृष्ण नरेस रे हंवा० ॥ कि
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ही मिथ्यात्वी देखने हुँ०, आण्योभाव विसेसरे हुं० ॥ ५ ॥ ० ॥ मुझ घर आवो साधजी हं०, ल्यो मोदक छै शद्धरे हूं० ॥ मुनिवर विह
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