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५२४ सज्झाय-संग्रह। रीने पांगुख्या १०, आया प्रभुजीने पास रे हं० ॥६॥ ढं० ॥ मुझ लबधै मोदक मिल्या हूँ, कहोने तुम्हे किरपाल रे हु०॥ लबध नही वच्छ ताहारी हूं०, श्रीपति लबधि निधान रे हूं० ॥७॥ । ढं०॥ एलेवा जुगतो नही हु, चाल्या परठन काज रे हूं० ॥ इंट निवा हे जायने हु० चुरे करम समाज रे हु ॥८॥ ढं० ॥ आणी चढती भावना हु, ॥ पांम्यो केवल नाण रे हु॥ ढंढण ऋषि मुगते गया हु, ॥ कहे जिनहर्ष सुजाण रे हु०॥६॥ इति ॥
॥धन्नाषीको सज्झाय ॥ श्रीजिनवाणी रेधन्ना,अमिय समाणी मोरा नन्दन, मन. तो मांनी रे नन्दनताह रै॥१॥ तं अतहि वैरागी रे धन्ना, धरमनो रागी मोरा नन्दन, महारो तो मनडो रे किम परचावसु ॥२॥ दस दसी दीसे रे धन्ना, तो बिन सनी मोरा नन्दन, अनुमति देतां रे जीभ वहे नही
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