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अभय रत्नसार । ५८३ गुण जास ॥ अोपमा विण नाणी भवमांहे, ते सिद्ध दिओ उल्लास रे ॥ भ०॥ २० ॥ सि०॥ ज्योतिसं ज्योति मिली जस अनुपम, विरमी सकल उपाधि ॥ आतमराम रमापति समरो, ते सिद्ध सहज समाधि रे ॥ भ० ॥ २१ ॥ सि० ॥ ___ढाल॥रूपातीत स्वभावजे, केवलदसणनाणी रे॥ तेध्याता निज आतमा,होय सिद्ध गुण वाणी रे॥ वो० ॥ ॐ ॥ ह्रीं० इति श्रीसिद्धपद-पूजा ।।
___ अर्थ तृतीय आचार्य पद-पूजा !
॥हा॥ हिव आचारज पदतणी, पूजा करो विशेष ॥ मोहतिमिर दूरै हरै, सूझै भाव असेष ॥ १॥ काव्य ॥ सूरीणदूरोकयकुग्गहाणं, नमोर सीरिसमप्पहाणं ॥ सद्द सणा दाणसमायराणं, अखंडछत्तीसगुणायराणं ॥ नमूं सूरिराजा सदा तत्वभाजा, जिनेंद्रागमें प्रौढ साम्राज्यभाजा॥षट वर्गवर्गित गुण शोभमाना, पंचाचारने पालवे सावधाना ॥ २॥ भविप्राणिनें देशना देशकाले, सदाअप्रमत्ता यथा सूत्र आलै ॥ जिके शासना
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