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स्तवन-संग्रह। ते चबद भेदे करी जाणो, पजत्तय अपजत्त जे ॥२॥ चाल ॥ पनहर विध रे सुरगण परमा हम्मिया, किलविषिया रे त्रिविध करम ते निम्मिया ॥ जंभिय दस रे नव लोकांतिक जांणिय, सो लह विधरे व्यंतर देव वखाणियै॥ उल्लालो॥ वखाणियै दस विध भुवनपतिना, तार रवि सशि रिसिगहा ॥ चर थिर दसै विध जोइसी सुर, वखाण्या जिनवर जिहां ॥ बारह विमाणह पण अनुत्तर, नवग्रीवेके नव भण्या ॥ पज्जत्त अपजत्तग अठाणं, अधिक सत संख्या गिण्यां॥
॥ ढाल ॥ २ ॥ मेघ आगम सही ए ॥ देशी ॥ पंचभरत वलि ऐरवत पंच पंच विदेहवर भूमिका ए॥ खेत्र ए पनरह करम भूमि जाणीयै असि कसि मसिही आजीविकाए ॥ हेमवत खेत्र वलि तिम हरिवर्ष रम्यक ऐरण्यवत सहीए मेरूपिणा पाखती चारि २ खेत्र दस कुरु अकरम भूमीकहीए ॥ ४॥ हिमगिर सिहरीय दाढ ची
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