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पूजा-संग्रह। जिननें धूपदान ॥१॥ ढाल ॥ धूपघटी जिम महमहै, तिन दहँ पातिक वृन्द। आर्ति अनादिनी जावै, पावै मन आनन्द । जे जन पूज धुप, भवकू फिर तेह । नावै पावै धुवघर आवै सुक्ख अछेह ॥ २ ॥ चाल ॥ जिनघरे वासतां धूप पूरै, मिच्छत दुर्गन्धता जाई दूरै । धूप जिम सहज उद्धंगत स्वभावे, कारिका उच्चगति भाव पावै ॥३॥ श्लोकः ॥ सकलकर्ममहे धनदाहनं, विमलसंवरभावसुधूपनं । अशुभपुदगलसंगविवर्जितं, जिनपतेः पुरतोस्तु सुहर्षितः ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने। धूपं यजामहे स्वाहा ॥४॥ इति धूप पूजा ॥ धूप अगरबत्ती खेवै ॥
अथ दीप पूजा॥ 'दोहा॥ मणिमय रजत ताम्रना, पात्र करी घृत पूर । बत्ती सूत्र कसंबनी, करो प्रदीप सनर ॥ १॥ ढाल ॥ मंगल दीप वधावो गावो जिन गुणगीत, दो पथकी जिम आलिका मालिका मंगलनीत । दीपतणी शुभज्योती द्योती जिन
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