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अभय रत्नसार।
५६६ रे॥तप ते एहिज आतमा, वरते निजगुण भोगे रे॥ वी० ॥ ६१ ॥ आगमनो आगमतणो, भाव ते जांणो साचो रे॥आतमभावै थिर हूओ, परभावै मतराचो रे ॥ वी०॥ १२ ॥ अष्ट सकल समृद्धिने, घटमांहे ऋद्धि दाखी रे॥ तिम नवपद ऋद्धि जाणज्यो, आतमराम छ साखी रे ॥वी. ६३॥ योग असंख्य छ जिन कह्या, नवपद मुख्य त जांणो रे॥ एहत] अविलंबिने, आतम ध्यांन प्रमाणो रे ॥ वी० ॥१४॥ ___ ढाल ॥ बारमी ए हवी, चोथै खंडे पूरी रे॥ वाणी वाचक जसतणी, कोइय न रही अधूरी रे॥ वी० ६५ ॥ ॐ ह्रीं प० तपपदे अष्ट द्रव्यं यजामहे ॥ इति नवपद-पूजा समाप्त ॥
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