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अभय रत्नसार । (भुअगपरिरंगिअं)॥ सोम-गुणेहिं पावइ न तं नव-सरय-ससी, तेअ-गुणेहिं पावइ न तं नव-सरय-रवी। रूव-गुणेहिं पावइ न तं तिअस-गण-वई, सार-गुहिं पावइ न तं धरणिधर-वई ॥ १७ ॥ ( खिज्जिअयं ) ॥ तित्थ-वरपवत्तयं तम-रय-रहिअं, धीर-जण-थुअच्चिअं चुअकलि-कलुसं । सति-सुह-प्पवत्तयं ति-गरणपयो, संतिमहं महामुणिं सरणमुवणमे ॥१८॥ ( ललिअं)॥ विणोणय-सिरि-रइअंजलिरिसि-गण-संथुधे थिमिश्र, विबुहाहिव-धणवइनरवइ-थुअ-महिअच्चियं बहुसो। अइरु-ग्गयसरय-दिवायर-समहिअ-सप्पभं तवसा, गयणंगण-विअरण-समुइय-चारण वंदिअं सिरसा ॥ १६॥ (किसलयमाला )॥ असुर-गरुलपरिवन्दिअं, किन्नरोरग-णमंसिअं । देव-कोडिसय-संथुअं, समण-संघ-परिवंदिरं ॥ २० ॥ (सुमुहं ) ॥ अभयं अणहं, अरयं अरुयं ।
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