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१४२ अभय रत्नसार । सिंहासण सामी ठव्यो, हुओ तो जय जयकार ॥ १६ ॥ भास ॥ तो चढियो घणमाण गजे, इन्दभूइ भूयदेव तो, हुकारो कर संचरिय, कव. णसु जिणवरदेव तो। जोजन भूमि समोसरण, पेक्खवि प्रथमार भ तो, दह दिस देखे विबुध वधू, आवंती सुररभ तो ॥ १७ ॥ मणिमय तोरण दंभ ध्वज, कोसीसे नवघाट तो, वइर विवर्जित जंतुगण, प्रातीहारिज आठ तो । सुर नर किन्नर असुरवर, इंद्र इंद्राणी राय तो, चित्त चमकिय चिंतवए, सेवंताँ प्रभु पाय तो ॥ १८ ॥ सहसकिरण सामी वीरजिण, पेखिन रूप विसाल तो; एह असंभव संभव ए, साचो ए इंद्रजाल तो। तो बोलावइ त्रिजग गुरु, इंद्रभूइ नामेण तो; श्रीमुख संसय सामी सबे, फेडे वेद पएण तो॥१६॥ मान मेल मद ठेल करे, भगतिहिं नाम्यो सीस तो, पंच सयांसुव्रत लियो ए, गोयम पहिलो सीस तो। बंधव संजम सु.
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