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अभय रत्नसार ।
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॥ कलश ॥
इम नगर वाहड मे मंडण, सुमति जिन सुपसाउलै ॥ गुणठास चवद विचार वरण्यो, भेद आगमने भलै ॥ संवत सतरे से छत्तीस, श्रावण वदि एकादशी | वाचक विजय श्री हरप सानिध, कह मुनि इम धमसी ॥ ३४ ॥
|| नव तत्र भाषा - गर्भित स्तवन ॥
दूहा हा ॥ नमस्कार अरिहंतने सिद्ध सुरि उवझाय ॥ साधु सकल प्रणमी करी, प्रणमी श्रीगुरुपाय ॥ १ ॥ करस्युं हूं नव तत्वनी, गाथा भासा रूप || मंद बुद्धि गुरु सानिधै, कहिस्युं सुगम सरूप ॥ २ ॥
॥ ढाल १ ॥ सूरती महीनानी ॥ ए देशी || जीव अजीवें पुण्य पाप तिम आश्रव सोय, संवर निज्जर बंध मोक्ष ए नव तत होय ॥ चवद २ बायाल बयासी वलि बायाल, सत्तावन बारे चौ नव क्रम भेदनी माल ॥ १ ॥ इग दुति
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