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अभय रत्नसार। ३२७ भेद ॥ सेवन सेवन कारण पहली भूमिका रे, अ भय अद्वष अरवेद ॥ सं० ॥ १ ॥ भय चंचलता हो जे परिणामनी रे, द्वेष अरोचक भाव ॥ खेद प्रवृत्ति हो करतां थाकिये रे, दोष अबोधि लखाव ॥ सं० ॥२॥ चरमावर्त्त हो चरम करण तथा र, भव परिणति परिपाक ॥ दोष टले वली दृष्टी खुले भलो रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥ सं० ॥ ३ ॥ परिचय पातिक घातक साधसं रे, अकुशल अप चय चेत ॥ ग्रन्थ अध्यातम श्रवण-मनन करी रे, परिशोलन नय हेत ॥ सं०॥ ४ ॥ कारण जोगे हो कारज नीपजे रे, एमां कोइ न वाद ॥ पण कारण विण कारज साधिये रे, ए जिनमत उनमाद ॥ सं०॥ ५ ॥ मुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवन आगम अनूप ॥ देजो कदाचित सेवक याचना रे, आनंदघन रसरूप ॥ सं०॥६॥
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