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अभय रत्नसार ।
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'इच्छा०' कहकर 'बेसणे संदिसाहुं ?" कहे। गुरु 'संदिसावेह' कहे तब फिर 'इच्छं' तथा खमासमण पूर्वक 'इच्छा०' कह कर 'बेसणे ठाउँ ?' कहे । और गुरु 'ठाएह' कहे तब 'इच्छ' 'कहकर खमासमण-पूर्वक 'इच्छा' कह कर 'सज्झाय संदिसाहु ?" कहे । गुरुके 'संदिसावेह' कहनेके बाद 'इच्छ' तथा खमासमण - पूर्वक 'इच्छा०' कह कर 'सज्काय करु' ?' कहे और गुरुके 'करेह' कहे बाद 'इच्छं' कहकर खमासमण पूर्वक खड़े ही खड़े आठ नमुक्कार गिने ।
अगर सर्दी हो तो कपड़ा लेनेके लिये पूर्वोक्त रीतिसे खमासमण-पूर्वक 'इच्छा० " कह कर 'पगुरण संदिसाहु ?' तथा 'पंगुरण पडिग्गाहुँ ?' क्रमशः कहे और गुरु 'संदिसावेह' तथा 'पडि
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ग्गाद्देह' कहे तब 'इच्छं' कह कर वस्त्र लेवे । सामायिक तथा पौषधमें कोई वैसा ही व्रती श्रावक वन्दन करे तो 'वंदामो' कहे और अव्रती श्रावक वन्दन करे तो 'सज्झाय करह' कहे ।
रात्रि - प्रतिक्रमण की विधि ।
पहले सामायिक लेकर फिर खमासमणपूर्वक 'इच्छा' 'इच्छा०' कह कर कह कर 'चैत्यवद करूँ ? कहने के बाद गुरु जब 'करेह' कहे तब 'इच्छं' कह कर 'जयउ सामि जयउ सामि', का 'जय वीयराय' * तक चैत्य-वन्द करे, फिर
*खरतरगच्छ में 'जय वीराय ०' की सिर्फ दो गाथाएं अर्थात्
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