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अभय रत्नसार।
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भ० ॥ इम पडिलेहण जे करै जी, धर मन ज्ञान विवेक ॥ सकल करम दूरै करै जी, पामै सुक्ख अनेक ॥ १४ ॥ भ० ॥ कलस ॥ इम वीर जिनवरतणा मुखथी, अरथ गणधर सांभली ॥ कहै सूत्रवाणी मन सुहाणी, सुणो भवियण मन रली । उवझाय वर श्रीलच्छिकीरत, मुखथकी ए संग्रही। मंहपतो पडिलेहण तणो विध, लच्छिकीरत गणि कही ॥ इति श्रीमुहपत्ती पडिलेहण स्तवनम् ॥
॥ आलोयण-स्तवन ॥ ॥ ढाल । सफल संसारनी ॥ ए देशी ॥ ए धन शासन वीर जिनवरतणौ, जास परसाद उपगार थायै घणौ ॥ सूत्र सिद्धांत गुरुमुखथकी सांभली, लहिय समकित अनें विरति लहिये वलो ॥१॥ धर्मनो ध्यान धर तप जप खप करे, जिणथकी जीव संसार-सागर तिरै ॥ दोष लागा जिके गुरुमुख आलोइय, जीव निमल हुवै वस्त्र जिम धोइयै ॥२॥ दोष लागे तिके
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