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अभय रत्नसार ।
५६१
स
॥ भ० ५४ सि० ॥ पांच वार उपशम लहीजै, चयउपसमीय असंख | एक वार चायक ते म्यक, दर्शन नमी असंख रे ॥ भ० ॥ ५५ सि० ॥ जे विण नांण प्रमाण न होवे, चारित्र तरु नवि फलियो | सुख निरवांण न जेविण लहिये, समकित दरशन बलियो रे ॥ भ० ५६ सि० ॥ सडसठ बोले ज े अलंकरियो, ज्ञांन चारित्रं मूल ॥ समकितदर्शन ते नित प्रणम्, शिवपंथनं अनुकूल रे ॥ भ० ५७ सि० ॥
॥ ढाल | समसंवेगादिक गुण, क्षयउशम ज े आवे रे ॥ दर्शन ते हिज आतमा, स्युं होय नाम धरावे रे | वी० ५८ ॥ ॐ ह्रीं प० दर्शन पदे प्रष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ ६ ॥
॥ अथ सातवीं ज्ञानपद- पूजा ॥
दूहा ॥ सप्तम पद श्रीज्ञाननो, सिद्धचक्र तपमाह ॥ आराधिजै शुभ मनें, दिनर अधिक उच्छाह ॥१॥ काव्य ॥ अन्नाण सम्मोहतमोहरस्स, नमो२ नाण दिवायरस्स ॥ पंचप्पयारस्सु
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