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अभय रत्नसार।
३७६ दिसि, विचरता वीतराग ए॥ चौरासी पूरब लाख वरसां, आउ इक २ जिण तणो ॥ पांचसै धनुष सरीर सोहे ॥ सोवन वरण सुहामणो २३ ढाल ॥ काल जघन्ये ए जिण वीस ए॥ हिव उत्कृष्ट भेद कहीस ए ॥ एकसो सत्तर तिहां जि नवर कहै, पांचे भरते जिम पांचे लहै ॥ उ० ॥ जिण लहै पांच तेम पांच, एरवत मिल दस हुवा इक २ विदेहे बत्तीस विजया, तिहां पिण छै जूजूआ ॥ एकसो सत्तर एम जिनवर, कोड़ि नव सय केवली, नब सहस कोड़ी अवर मुनिवर, वं. दियै नित ते वली ॥ २४ ॥ ढाल ॥ इहां भरते एरवतें आज ए, पंचम आरै नही जिनराज ए॥ धन २ पांचे महाविदेह ए, विचरे वीस जिन गुणगेह ए ॥ उ० ॥ गुणगेह दोष अढार वरजित अतिसयां चोतीस ए ॥ चौशठि इंद नरिंद सेवित, नमूं ते निसदीस ए॥ तिहां आजे तारण तरण विचरै, केवली दोय कोड़ ए॥दोय सहस
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