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अभय रत्नसार । ५४६ देस लह्या हिवै, लाधो गुरु संयोग ।। अंगथकी आलस तजो, करो सुकृत संयोग ॥६६॥ ऊ० ॥ श्रीनमि रायतणी परै, चेतो चितमांहि ॥ स्वारथना सहको सगा, कोइ किणरो नांहि ॥६७ाउ०॥ भोग संयोग तजी सहू, थया जे अणगार ॥ धन२ तसु माता पिता, धन२ अवतार ।। ६८॥ उ०॥ सुरतरु सुरमणि सारखो,सेवो जिनधरम । जिणथी सुख संपति वधे, कीजै तेहिज कर्म ॥ ६६ ॥ उ० ॥ तंदुलबेयाली अछ, एहनो अधिकार ॥ तिणथी ऊद्धरनैं कह्यो, नही झूठ लिगार ॥७॥ उ०॥ कलस ॥ इह जैनधर्म विचार सांभलि लिये संजमभार ए, परिशिह केरा सदा पालै नेम निरतिचार ए॥ संसारना सुख सकल भोगवि ते लहे भव पार ए, श्रीजिनहर्ष सुसीस रंगैइम कहै श्रीसार ए ॥ ७० ॥ उ ॥ इति ॥
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