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अभय रत्नसार। ५३३ सुन्दरी भासै रे ॥ ऋषभ जिनेसर मोकली, बाहूबलने पासै रे ॥ वी० ॥ गज चढयां केवल न होइ रे । वी० २॥ लोच करी चारित्र लियो, वलि आयो अभिमांनो रे॥ लघु बांधव वादू नहीं, काउसग्ग रह्यो शुभ ध्यानो रे ॥३॥ वी०॥ वरस दिवस काउसग्ग रह्यो, वेलड़ियां वीटाणो रे ॥ पंखी माला मांडिया, सीत ताप सूकाणो रे॥ वी० ॥ ४॥ साधवी वचन सुण्या इसा, चमक्यो चित्त मझारो रे ॥ हय गय रथमें परिहरया, पिण नवि मंक्यो अहंकारो रे ॥ वी० ॥ ५॥ वैरागे मन वालियो.मुक्यो निज अभिमांना रे ॥ पांव उपाड़ी वांदिवा, ऊपनो केवलज्ञानो रे ॥ वी०॥६॥ पहुंतो केवली परखदा, बाढ बल ऋषिराया रे ॥ अजर अमर पदवी लही, समयसंदर वंदे पाया रे ॥ ७॥ वी० ॥ इति ॥
॥ अरणिक मुनिकी सज्झाय ॥ अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी, तड़के दाझे
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