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अभय रत्नसार।
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॥कमकी सज्झाय॥ देव दानव तीर्थंकर गणधर, हरि हर नरवर सघला ॥ करम तणे वस सुख दुख पाया, सबल हुआ महा निबला रे प्राणी,कर्म समो नहि कोई ॥१॥ आदीसरजीने करम अटाख्या, वरस दिवस रह्या भूखा ॥ वीरने बारे वरस दुख दीधा, ऊपना ब्राह्मणी कूखैरे प्राणी ॥क०॥२॥ साठ सहस सुत माख्या एकण दिन, जोध जुवान नर जैसा ॥ सगर हुओ महा पूत्रनो दुखियो, कर्मतरणा फल एसा रे॥ प्रा०॥ क० ॥३॥ बत्रीस सहस देसांरो साहिब, चक्री सनतकुमार ॥ सोले रोग सरीरमे ऊपना, कर्मे कीयो तनु छार रे॥प्रा०॥४॥ कर्म हवाल किया हरचंदने, वेची सुतारा रांणी ॥ बारे वरस लग माथे आण्यो, नीचत घर पाणी, रे॥ प्रा०॥क०॥५॥ दधिवाहन राजारी बेटी, चावी चंदनवाला ॥ चौपद ज्यं चहुटामें वेची, करमतणा ए चाला रे ॥प्रा०॥ क० ॥६॥
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