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अभय रत्नसार। २१६ लोभ दसम सुविचार, उपशांत मोह नाम इग्यार, खीणमोह बारम्म ॥३॥ तेरम सयोगी गणधांम, चवदम थयो अजोगी नाम, वरणप्रथम विचार कुगुरु कुदेव कुधर्म वखाणे, ए लक्षण मिथ्या गुणठाणे, तेहना पंच प्रकार ॥ ४॥
॥ ढाल ॥ २ ॥ सफल संप्सारनी ॥ ए देशी ॥ ॥जेह एकांतनय पक्ष थापी रहै. प्रथम एकांत मिथ्यामता ते कहै ॥ जैन शिव देव गुरु सहु नमै सारखा, तृतीय ते विनय मिथ्यामती पारिखा ॥ सूत्र नवि सरदहै रहै विकलप घणे, संसयी नाम मिथ्यात चाथो भणे ॥ ६॥ समझ नही काय निज धंद रातो रहै, एह अज्ञान मिथ्यात पंचम कहै। एह अनादि अनंत अभव्यनें, करिय अनादि थिति अंतसुभव्यने ॥ ७॥ जेम नर खीर घृत खंड जिमने वमें, सरस रस पाय वलि स्वाद केहवो गमें ॥ चौथ पंचम छठे ठाण चढ़ने पड़े, किणहि कषाय वस आय पहलै अडै ॥ ८॥ रहै
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