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अभय रत्नसार । ३१५ नाग रह्यो डमडोले ॥३८॥०॥ विवर करी मूषक तसु मुखमां, दीये आपणं देह ॥ मार्ग लही वन नाग पधास्या, कर्म मर्म जोवो एह ॥ चे०॥ ॥ ढाल ५ मी ॥ तो चढियो धन मान गजै ॥ ए देशी ॥
हिव उद्यमवादी भणे ए, ए च्यारै असमच्छ तो ॥ सकल पदारथ साधवा ए, उद्यम एक समरत्त्थ तो ॥ ४० ॥ उद्यम करतां मानवी ए, स्यं नवि सीझै काज तो ॥ रामें रयणायर तणीं ए, लीधो लंका राज तो ॥ ४१॥ करम नियत ते अणुसरै ए, जेहमां सत्व न होय तो॥ देवल वाघ मुख पंखिया ए, पिउ पैसंता जोय तो॥४२॥ विन उद्यम कीम निकले ए, तिल मांहेथी तेल तो ॥ उद्यमथी उंची चढे ए, जोवो एकेंद्रिय वेल तो ॥ ४३ ॥ उद्यम करतां इक समें ए, जेह न सीम काज तो॥ ते फिर उद्यमथी हुवे ए, जो नवि आवे वाज तो॥४४॥ उद्यम करि ऊस्यां विना ए, नवि रंधायै अन्न तो॥ आवी न पडै
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