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अभय रत्नसार ।
सो होइ लाख गुण विधिसु जोवे ॥ साइग
डाइण भूत प्रेत वेत्ताल न पोहवे, आधि व्याधि ग्रहणी पीडते किमहि न होवे ॥ कुठ जलोदर रोग सबे नासै एणही मंत, मयासुदरितणी परे नव पय झारण करत ॥ ११ ॥ एक जीह इण मंत्रणा गुण किता बखाणु, नाहीण छऊमच्छ एह गुण पार न जाणूं ॥ जिम सत्तुंजय तित्थराउ महिमा उदयवंती, सयल मंत्र धुरि एह मंत्र राजा जयवंतो ॥ तिथ्यकर गणहर परिणय चवदह पूरब सार, इस गुण अंत न को कहे गुण गिरुवो नवकार ॥ १२ ॥ अड संपय नव पय सहित इसठ लहु अक्खर, गुरु - क्खर सत्तैव इह जाणो परमक्खर || गुरु जि वल्लह सूरि भणे सिव सुक्खह, कारण, नरय तिरय गय रोग सोग बहु दुक्ख निवारण || जल थल महियल वनगहण समरण हुवै इक चित्त, पंच परमेष्टि मंत्रह तणी सेवा देज्यो
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