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अठारह पापस्थानक आलोउं । १७
लाख देवता, चार लाख नारक, चार लाख तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्य । कुल चौरासी लाख जीवयोनियोंमेंसे किसी जीवका मैंने हनन किया, कराया या करते हुएका अनुमोदन किया वह सब मन, वचन, काया करके मिच्छामि दुक्कडं ॥३०॥
३१ – अठारह पापस्थानक आलोउं । पहला प्राणातिपात, दूसरा मृषावाद, तीसरा अदत्तादान, चौथा मैथुन, पाँचवाँ परिग्रह, छठा क्रोध, सातवाँ मान, आठवाँ माया, नवत्राँ लोभ, दशवाँ राग, ग्यारहवाँ द्वेष, बारहवाँ कलह. तेरहवाँ अभ्याख्यान, चौदहवाँ पैशुन्य, पन्द्रहवाँ रति - बरति, सोलहवाँ पर परिवाद, सत्रहवाँ माया- मृषावाद, अठारहवाँ मिथ्यात्व - शल्य; इन पापस्थानों में से किसीका मैंने सेवन किया, कराया या करते हुएका अनुमोदन किया, वह सब मिच्छामि दुक्कडं ।
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