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स्तुति - संग्रह
सुरासुरनता पायादपायादसौ ॥ अन् श्रीजिन चंद्रगिस्सुमतिनो भव्यात्मनः प्राणिनो, या चक्रेऽ वम कष्टहस्तिनिधने शार्दूलविक्रीडितम् ॥ ४ ॥ ॥ वीस विहरमान की स्तुति ॥
पंचविदेहविषे विहरंता । वीस जिनेसर जग जयवंता ॥ चरणकमल तसु नामू सीस । ग्रहनिस समरू ते जगदीस ॥ १ ॥ पंच मेरुपा से झलकता | सोहे वीस महा गजदंता ॥ तिण ऊपर छे जिनहर वीस । ते जिनवर प्रणमूं निसदोस ॥ २ ॥ गणहर कहिय दुवालस अंग । थांनक वीस भया तिहां चंग ॥ तिण ऊपर जे आणे रंग । ते नर पामे सुक्ख अभंग ॥ ३॥ जिनशासनदेवी चउवीस | पूरे मुझ मनतणी जगीस ॥ संघतरणा जे विघन निवारे । तिहुण जन मन वंछिय सारे ॥ ४ ॥ ॥ पार्श्वजिनकी स्तुति ॥ समदमोत्तमवस्तुमहापणं, सकलकेवलनि
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