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अभय रत्नसार। माण-वरगंध-हत्थि-पत्थाण-पत्थियं संथवारिहं । हत्थि-हत्थ-बाहं धंत-कणग-रुअग-निरुवहयपिंजरं पवर-लक्खणो-वचिय-सोम-चारु-रूवं, सुइ-सुह-मणाभिराम-परम-रमणिज्ज-वर-देवदं. दुहि-निनाय-महुरयर-सुह-गिरं ॥ ६॥ [ वेड्ढओ] अजियं जिआरि-गणं, जिअ-सव्व-भयं भवोह-रिउ। पणमामि अहं पयो पावं पसमेउ मे भयवं ॥ १०॥ (रासालुद्धओ) कुरु-जणवय-हस्थिणाउर-नरीसरो पढमं तो महा-चकहि-भोए मह-प्पभाओ जो बावत्तरिपुरवर-सहस्त-वर-नगर-निगम-जणवय-वई बत्तीसा-राय-वर-सहस्साणुयाय मग्गो। चउदसवर-रयण-नव-महा-निहि-चउ-सट्ठि-सहस्स-पवर-जुवईण सुंदर-वई चुलसीहय गय-रह सयसहस्स-सामी छन्नवइ-गाम-कोडि-सामी-आसी जो भारहम्मि भयवं ॥ ११॥ (वेड्ढओ) तं संतिं संतिकरं संतियणं सव्व-भया। संति
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