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अभय रत्नसार ।
एउ, एउ वि जइ लब्भइ। सच्चं जं भुक्खिय. वसेण, किं उंबरु पच्चइ ॥२७॥ तिहुअण-सामित्र पासनाह मइ अप्पु पयासिउ। किज्जउ जं निय-रूव-सरिसुन मुणउ बह जंपिउ ॥ अण्णण जिण जग्गि तुह समोवि, दक्खिन्न-दयासउ। जइ अवगन्नसि तुह जि अहह, कह होस हयासउ ॥ २८ ॥ जइ तुह रूविण किणवि पेय. पाइण वेलवियउ। तुविजाणउ जिण पास तुम्हि, हडं अंगीकरउ॥ इय मह इच्छिउ जं न होइ, सा तुह ओहावणु। रक्खंतह निय. कित्ति णेय, जुज्जइ अवहीरण ॥ २६ ॥ एह महारिय जत्त देव, इहु न्हवण-महूसउ। जं अणणिय-गुण-गहण तुम्ह, मुणि-जण-अणिसिद्धउ ॥ एम पसीअसु पासनाह, थंभणयपुरट्ठिय । इय मुणिवरु सिरि-अभयदेउ, विन्नवइ अणिंदिय ॥ ३०॥
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