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जयतिहुश्रण स्तोत्र। ३७ महं झखंत, इय पास न सोहिय ॥ २३ ॥ जुग्गाऽजुग्ग-विभाग नाह, न हु जोयहि तुहसम। भुवणुवयार-सहाव-भाव-करुणा-रससत्तम ॥ सम विसमई किं घण नियइ, भुवि दाह समंतउ। इय दुहि-बंधव पास-नाह, मइ पाल थुणंतउ ॥२४॥ नय दोणह दाणयं मुयवि, अन्नुवि किवि जुग्गय। जं जोइवि उवयार करहि, उवयार समुज्जय ॥ दीणह दीण निहीणु जेण, तइ नाहिण चत्तउ । तो जुग्गउ अहमेव पास, पालहि मइं चंगउ ॥ २५ ॥ अह अन्नुवि जुग्गय-विसेसु किवि मन्नहि दीणह । जं पासिवि उवयारु करइ, तुहु नाह समग्गह ।। सुच्चिय किल कल्लाणु जेण, जिण तुम्ह पसीयह । किं अन्निण तं चेव देव, मा मइ अवहीरह ॥ २६ ॥ तुह पत्थण न हु होइ विहलु, जिण जाणउ किं पुण । हउ दुक्खिय निरु सत्तचत्त, दुक्कहु उस्सुय-मण ॥ तं मन्नउ निमिसेण
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