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अभय-रत्नसार ।
कारणे लाभ ऊपर जे ध्यावे, पहरे पीलावत्थ तेह मन वंछिय पावै ॥ इण झाणे नव निधि हुवेए रोग कदे नवि होय, गज रथ हय वर पालखो चामर छत्त सिर जोय ॥ ५॥ नीलवन्न उवझाय सीस पाढंता पच्छिम, आराहिज्जे अंग पुव्व धारंत मणोरम ॥ पच्छिम दिस पंखडीय कमल ऊपर सुहझाण, जोवो परमानंद तासु गय देवविमाण ॥ गुरु लघु जे रक्खे विदुर तिहां नर बहु फल होइ, मन सूधे विण जे जपे तिहां फल सिद्ध न होई ॥ ६ ॥ सव्वै साधु उत्तर विभाग सामला वइठा, जिण धर्म लोय पयासयंत चारित्र गुण जिठा ॥ मण वयण काएहिं जपे जे एके झाणे, पंचवन्न तिहां नाण झाण गुण एह पमाणे ॥ अनंत चोवीसी जग हुइए होसी अवर अनंत, आदि कोइ जाणे नही इण नवकारह मंत ॥ ७॥ एसो पंच नमुकारो पद दिसिम गणेहिं, सव्व पावप्पणासणो पद जप
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