________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अभय-रत्तसार ।
७४३
त्यागियों को ख़ास कर ध्यान देना चाहिये । इसोके अनुसार और गुरुके बतलाये अनुसार बर्त्तना चाहिये । श्रीजिनेश्वर भगवानने जिन बाईस अमक्ष्यों का निषेध किया है; उन्हें और अन्य अनाचरणीय पदार्थो का भी त्याग करना चाहिये । वनस्पतियोंमें तो जरूर ही नियम रखना चाहिये। नियम प्रतिज्ञा करनेसे विरतिपना आता है और इस विरतिका बड़ा भारी फल होता है। कहा है, कि "ज्ञानस्य फलं विरतिः” – ज्ञानका फल विरति है । यदि विरति न हुई तो ज्ञान किस कामका ? लम्बी-चौड़ी बात तो सभी कर सकते हैं, परन्तु आचरण करना ही कठिन व्यापार हैं। मनमोदक नहीं भूख बुझातीं । अबिरतिसे निगोदिया आदि जीवोंकी तरह घने कर्म-बन्ध होते हैं । (देश-किरति या सर्व विरति ) को अङ्गीकार करते हैं, उनकी प्रशंसा ऐसे देवता भी करते हैं, जो विरति नहीं कर सकते | अविरतिसे बड़े दुःख उटाने पड़ते हैं और नारकी वगैरह भवोंमें पड़ना होता है । इसलिये विरतिका अङ्गीकार करना चाहिये। नियममें थोड़ा कष्ट, परन्तु बड़ा लाभ होता है । इसका परिणाम सुखका हेतु है। बहुत नियम न पार लगे, तो तीर्थङ्कर महाराजने जिन वस्तुओंका निषेध किया है, उनका भक्षण नहीं करना चाहिये ।
·
अव वह नियम ( प्रतिशा - व्रत ) क्योंकर अङ्गीकार करना तथा पालना चाहिये ? व्रतका अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार - इस प्रकार ४ दोष लगते हैं। जैसे—किसीने चौविहार ( चार आहारका त्याग ) किया है, और उसे पानोकी
For Private And Personal Use Only