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अभय रत्नसार। ४१६ सं॥ रात दिवस एहवी मन वरते, जाणं जइ मिलुं तुमसुं ॥ जि० ॥२॥ पूरव पुण्यथकी में पायो, ए अवसर आजूणो ॥ मिलियो तूं प्रभु पास चिन्तामण, साहिब सहज सलूणो ॥ जि० ॥३॥ थारे तो सेवग छै बहुला, मो सरिखा लख ग्याने, माहरे तो इण जगमे जोतां, थारे नही कोइ टाणे ॥ जि० ॥ ४ ॥ आस हिये इक ताहरी राखू, बीजो मुख नही भाखू ॥ अमृत जेम लही गुणरस, खारो जल किम चाखू ॥ जि० ॥ ५ मोहन ए मुद्रानी महिमा, कहतां पार न आवे ॥ सायर लहर मालाने गिणतां, कहो कुण मति उ पजावै ॥जि०॥६॥ भगतपणे किंचित गुण भाखू,हूं म्हारी मति सारू ॥ निरुपमा अनुपम तुझ गुण लायक, त्रिभुवन जीवन सारू ॥ जि०॥७॥ वरस अढार वली इकताले, मिगसर पख उजवाले ॥ इग्यारस दिन अधिक सनेहे, यात्रा करी सुविशाले ॥ जि० ॥८॥ जेसलगिरि श्रीसंघ
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