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४२० स्तवन-संग्रह। जुगतसं, मेलो तिहां मंडायो ॥ लाभ उदय जिनचन्दने प्रभुजी,वांध्यो प्रेम सवायो । जि० ॥६॥
॥ बारहवां पद ॥ ॥ तूं मेरे मनमें प्रभु तूं मेरे दिलमें, ध्यान धरू पल २ में ॥ पास जिनेसर अंतरजामी, सेवा करू छिन २ में ॥ तूं० ॥१॥ काहूको मन तरुणीसें राच्यो, काहूको चित्त धनमें ॥ मेरो मन प्रभु तुमहीसे राच्यो, ज्यु चातक चित्त घनमें । तूं०॥ २ ॥ जोगीसर तेरी गति जाणे, अलख निरंजन छिनमें ॥ कनककीरत सुखसागर तूही, साहिब तीन भुवनमें ॥ तं० ॥३॥
॥ निर्वाण-कल्याणक-स्तवन ॥ ॥ मारगदेशक मोक्षनो रे, केवल ज्ञान निधान ॥ भाव दयासागर प्रभु रे, पर उपगारी प्रधानो रे ॥ १॥ वीर प्रभु सिद्ध थया, संघ सकल आधारो रे ॥ हिव इण भरतमां, कुण करशे उपगारो रे ॥ वीर० ॥ २ ॥ नाथ विहूणं सैन्य ज्यं
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