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अभय रत्नसार ।
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हिया दुक्ख प्रांत ॥ सासोश्वासें भव पूरिया जी, तेह न जांगू अंत हे ॥ मा० ॥ ० ॥ ३ ॥ हिवा तूं बालक जी, जोवन भयो रे कुमार ॥ आठ रमणि परणावियो रे, भोगवि सुक्ख अपार रे जाया ॥ ह्र नवि० ॥ ४ ॥ जनम मरण निरयातणो जी, दुक्ख न सहणौ जाय || वीरजिणंद वखाणियो जो, ते मैं सुणियो कांन हे मायड़ी ॥ अ० ॥ ५ ॥ वछ कांछलीये जीमणो जी, अरस विरस आहार | भुइ पाला नित ह्रींडगा जी, जाणसि तुझ कुमार रे जाया ॥ हूँ नवी० ॥ ६॥ भमतां जीव अनंत भम्यो जी,धम दुहेलो होय ॥ जरा व्यापे जोवन खिसे जी, तब किम करणो होय रे मायड़ी ॥ अ० ॥ ७ ॥ मृगनयणी आठे रमे जी, तोड़े नवसर हार || जोवनभर छोरू नहो जी, कांइ मूको निरधार कुमरजी ॥ हूँ न० ॥८॥ हंसतूलिका सेजड़ी जी, रूप रमणि रस भोग ॥ अतहि सुंहाली देहड़ी जी, किम हुय संजम जोगरे जाया ॥ हूँ न० ॥ ६ ॥ स्वारथनो सहू ए
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