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४३६ स्तवन-संग्रह।
॥ मंगलीक-स्तोत्र ॥ धम्मो मंगल मुकिठं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वित्तं नम संति, जस्स धम्मे सयामणो ॥१॥ जहा दुम्मस्स पुप्फेसु, भमरो आवइ रसं । नय पुप्फ किलामेइ, सोइ पीणेइ अप्पयं ॥२॥ एवमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमाइ पुप्फेसु, दाणभत्ते सणेरया ॥३॥ वयं च वि त्तिं लब्भामो। नहि कोइ उव हम्मइ। अहागडे सुरीयंति, पुप्फेसु भमरोजहा ॥४॥ महुकार समा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिंडरयादिता, तेण वुच्चति साहुणो तिव्वेमि ॥ ५॥ सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारणं । प्रधानं सव्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ १॥ मंगलं भगवान्वीरो, मंगलं गौतमः प्रभु।मंगलं स्थूलिभद्राद्या, जनोधर्मोस्तु मंगलम्
॥ नवकार महात्म्य ॥ (छंद) ॥ सुखकारण भवियण समरो नित नवकार,
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