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अभय रत्तसार ।
५६३ ज्ञानने वंदा ज्ञान म निंदो, ज्ञानीये शिवसुख चाख्यं रे ॥ भ० ६३ ॥सि०॥ सकल क्रियान मूल ते श्रद्धा, तेहनूं मूल जे कहिये ॥ तेह ज्ञान नितर वंदीजे, ते विन कहो किम रहिये रे ॥ भ० ॥६४ सि०॥ पांच ज्ञानमांहे जेह सदागम, स्वपरप्रकाशक तेह ॥ दीपकपर त्रिभुवन उपगारी, वलि जिम रवि शशि मेह रे॥भ०॥६५ सि०॥ लोक ऊरध अधतिर्यग ज्योतिष, वैमानीकने सिद्ध ॥ लोक अलोक प्रगट सब जेहथी, ते ज्ञाने मुझ शुद्धी रे॥ भ०॥६६॥ सि०॥
ढाल ॥ ज्ञानावरणी जे कर्म छ, क्षय उपशम तसु थाये रे ॥ तो होइ एहिज आतमा, ज्ञान अबोधता जाय रे ॥ वी० ॥६७ ॥ ॐ ह्रीं प. ज्ञानपदे अष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ इति॥
॥ अथ आठवीं चारित्रपद-पूजा ॥ ॥ दूहा ॥ अष्टम पद चारित्रनो, पूजो धरी ऊमेद ॥ पूजत अनुभवरस मिले, पातिक होय उछेद ॥१॥ काव्यं ॥आराहिया खंडिअ सकि
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