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अभय-रत्नसार ।
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दो वन्दना दे और 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् समाप्ति खामणेणं अभुमि अभि तर पक्खियं खाउँ ? कहे। गुरु जब 'खामेह' कहे तब 'इच्छं' खामेमि पखियं जं किंचि कहे । बाद 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक खिय खामा खामु ?' कह और गुरु जब 'पुराणवतो' तथा चार खमासमण - पूर्वक तीन नमुक कार गिन कर 'पक खिय- समाप्ति खामणा खामेह' कह, तब एक खमासमरण - पूर्वक तीन नमुक्कार पढ़ े, इसतरह चार बार करे । गुरु के 'नित्थारगपारगा होह' कहने के बाद 'इच्छ', इच्छामो
सं"ि कह े । इसके बाद गुरु जब कहे कि 'पुराणवतो पक्खियके निमित्त एक उपवास, दो आयंबिल, तीन निवि, चार एकासना, दो हजार सज्झाय करी एक उपवासकी पेठ पूरना और 'पक्खिय' के स्थान में 'देवसिय, कहना,
* चउमासियमें इससे दूना अर्थात् दो उपवास, चार आयंबिल छह निवि, आठ एकासन्न और चार हजार सज्झाय । सबच्छरिय में
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