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अभय रत्नसार। ४५३ वयर सामिनो जीव, तीर्थकजभक देव तिहां ॥ प्रति बोध्या पुंडरीक, कंडरीक अध्ययन भणी ॥ वलतां गोयम सामि, सवि तापस प्रतिबोध करे॥ लेई आपण साथ, चाले जिम जथा धिपति ॥ २८ ॥ खीर खांड घृत आण, अमोय बेठ अंगूठ ठवे ॥ गोयम एकण पात्र, करावे पारणो सवे ॥ पंचसयां शुभ भाव, उज्जल भरियो खीर मिसे । साचा गुरुसंयोग, कवल ते केवल रूप हुआ ॥ २६ ॥ थंचसयां जिणनाह, सम वसरण प्राकारत्रय ॥ पेखवि केवल नाण, उपनो उज्जोय करे ॥ जाणे जवि पीयूष, गाजंती. घन मेघ जिम ॥ जिनवाणी निसुणेवि, नाशी हुआ पंचसया ॥ ३०॥ वस्तु ॥ इण अनुक्रम इण अनुक्रम नाण पन्नरेसें, उपन्न परिवरिय, हरिदुरिय जिणनाहवंदइ,जाणेवी जग गुरु वयण, तिहिं नाण अप्पाण निंदइ, चरमजिनेसर इम भणे, गोयम म करिस खेव, छेह जाय आ
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