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श्रीशत्रुंजयका रास ।
सराम ॥ चैत्यप्रवाड़ी इस पर करी ए, सीधा
छित कांम ॥ ० ॥ १६ ॥ जात्रा करो से - जातणी ए, सफल कियो अवतार ॥ कुसल क्षेम वियो ए, संघ सहू परवार ॥ से० ॥ १७ ॥ शत्रुंजय रास सोहामणो ए, सांभलज्यो सहू कोय ॥ घर बेठां भरणे भावसुं ए, तसु यात्रा फल होय ॥ से० ॥ १८ ॥ संवत सोल बयासिये ए, श्रावण वदि सुखकार ॥ रास रच्यो से जाणो ए, नगर नागोर मकार ॥ से० ॥ १६ ॥ गिरुवो गच्छ खरतर तणो ए, श्रीजिनचंद सूरीस, प्रथम शिष्य श्रीपूजना ए, सकलचंद सुजगीस ॥ से० ॥ २० ॥ ताससीस जग जांगिये ए, समयसुंदर उवकाय ॥ रास रच्यो तिण रूवडो ए, सुणतां आणंद थाय ॥ से० ॥ २१ ॥ इति श्रीशत्रु जयरास संपूर्णम ॥
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