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अभय रत्तसार
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जयउ पवयणं, पंच कल्याण एसु ॥३॥ गोरीगंधा रोकाली, नरवरमहिषी, हंससंगोरिहव्वा। सब्वछा माणमंबा, वरकमलकरा, रोहिणीबत्तअंबा ॥ पन्नत्ती बत्तपउमा, धणइसरणई, खित्तगेहाइवासा । संर्ति संघे कुणंतु, गहगणसईया, पंच कल्याण एसु ॥४॥ इति श्रीचतुर्विंशतिजिनानां पंचकल्याणक स्तुतिः ॥
॥श्रीशत्रुजयको स्तुति ॥ सेव॒जामंडण आदिदेव । ह अहनिस समरू तास सेव ॥ रायणतल पगलां प्रभूतणा । पूजि सफल फल सोहामणा ॥ १॥ तेवीस तीर्थ कर समवसरया। विमलाचल ऊपर गुण भरया ॥ गिरि कडणे आया नेमनाथ । ते जिनवर मेलो मुगतिसाथ ॥२॥ सोहम सांमी उपदिस्या। जंबुगणधरने मन वस्या ॥ पुडरगिरि महिमा जे मांह । ते आगम समरू मनउच्छाह ॥ ३॥ चक्केसरि गोमुख कवडयक्ष । मन वंछित पूरण कल्पवृक्ष ।
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