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अभय रत्नसार। लट्ठा सम-प्पइट्ठा, अदोस-दुट्ठागुणेहि जिट्ठा। पसाय-सिट्टा तवेण पुट्ठा, सिरीहि इट्ठा रिसीहि जुट्टा ॥३३॥ (वाणवासिआ)॥ते तवेण धुअसव्व-पावया, सब्ब-लोअ-हिअ-मूल-पावया। संथुआ अजिय-सन्ति-पायया, हुंतु मे सिवसुहाण दायया ॥ ३४ ॥ (अपरान्तिका ) ॥ एवं-तव-बल-विउलं, थुओं मए अजिअ-संति. जिण-जुअलं । ववगय कम्म-रय मलं, गई गय सासय विउलं ॥ ३५ ॥ (गाहा) ॥ तं बहु-गुण-प्पसायं,मुक्ख-सुहेण परमेण अविसायं। नासेउ मे विसाय, कुणउ अ परिसावि अ पसाय ॥३६॥ ( गाहा )॥ तं मोएउ अ नंदि, पावेउ अ नंदिसेणमभिनंदि । परिसावित्र सुहनंदि, मम य दिसउ संजमे नंदिं ॥ ३७ ॥ ( गाहा)॥ पश्खिअ चाउम्मासे, संवच्छरिए अ अवस्स-भणिअव्यो। सोअब्बो सव्वेहिं उवसग्ग-निवारणो एसो॥ ३८ ॥ जो पढइ जो
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